आर एस एस के मोहन भागवत और उनके चेले चाटे इस्लाम के भारतीयकरण की बातें अब खुल कर करने लगे हैं। उन्हें लगता है कि, उनके अपने शब्दों में, भारत में आठ सौ साल के बाद हिन्दू शासन स्थापित हुआ है इसलिए उस इस्लाम को जल्द से जल्द भारत की भूमि में दफ़न कर देना चाहिए जिसे ख़त्म करने की आरज़ू उनके पूर्वज सदियों से अपनी आने वाली पीढ़ियों के मन में बैठाते रहे हैं। क्यूंकि इस्लाम ने अरब से निकल कर दुनिया के दूसरे क्षत्रों के साथ साथ भारतीय उपमहाद्वीप में भी इंसानों की बड़ी संख्या को उन आस्थाओं और मान्यताओं से मुक्त कर के अपनी छत्र छाया में ले लिया था जिनके बंधन में बंधे रहते हुए वे दुनिया में एक अंधा जीवन जी रहे थे और मरने के बाद भी जहन्नम के रास्ते पर जा रहे थे।
आर एस एस मानसिकता के हिन्दुत्वादी चूंकि राजनीतिक स्वार्थ की वजह से भी, पैतृक संस्कृति पर अहंकार की वजह से भी और आस्था की अंधभक्ति की वजह से भी इस बात का दर्द दिल में लिए हुए हैं कि उनके पूर्वजों का बनाया गया सामाजिक व सांस्कृतिक ढांचा इस्लाम की नैतिक चेतना के ज़ोर से धराशायी हो गया था, इसलिए वे इस्लाम से बदला लेने के फ़िराक़ में हमैशा रहे हैं और अब उन्हें वह राजनीतिक शक्ति प्राप्त हो गयी है जिसका इंतेज़ार वे सदियों से कर रहे थे, इसलिए अब अपने मक़सद को पूरा करने के लिए वे बड़ी जल्दी में हैं। इनके मन की सुलगती हुई आग अब शोला बन गयी है और अपनी ज़बानों व लेखनियों से यह जले भुने लोग आग उगलने लगे हैं। इस्लाम से इनकी दुशमनी अब बिलकुल भी छिपी नहीं रह गयी है।
यह भारत के मुसलमानों की नादानी है कि उऩ्होंने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुत्वादियों की नफ़रत और हिंसा को ख़ुद अपना क़ुसूर माना। कभी यह माना कि मुस्लिम बादशाहों के तथाकथित ज़ुल्म की वजह से यह मुसलमानों से नफ़रत करते है, कभी यह माना कि भारत के विभाजन और पाकिस्तान बनने की पीड़ा इनके मन में पल रही है और कभी यह माना कि मुसलमान इनसे राजनीतिक और आर्थिक मुक़ाबलों की दौड़ में लगे रहते हैं जिसकी प्रतिक्रिया में यह मुसलमानों पर हमले करते हैं। यह सारी बातें पूरी तरह ग़लत तो नहीं लेकिन आंशिक रूप से ही सही हैं। अस्ल बात यह है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्ल. ने इंसानों को तौहीद के अक़ीदे से जोड़ कर जिहालत की जिस संस्कृति से निकाला था और उनके बनाए हुए झूठे बुतों को जिनकी वे उपासना करते थे ख़ुद उऩ्हीं के हाथों तुड़वादिया था यह उसी मुशरिकाना संस्कृति के वारिस हैं और छटी सदी व उसके बाद की इस्लामी क्रान्ति के प्रभावों को मिटाकर दुनिया को फिर से उसी पुरानी मुशरिकाना संस्कृति की ओर लोटाने के लिए प्रयास में लगे हुए हैं।
लेकिन इनकी कायरता और मक्कारी यह है कि यह हिन्दुत्वादी संस्कृति को भारतीय संस्कृति कहते हैं और इस्लाम के हिन्दूकरण की चाहत को इस्लाम का भारतीयकरण कहते हैं। पिछले दिनों दिल्ली में एक आयोजन इसी नाम से हुआ और अब यह ख़बरे आ रही हैं कि मुस्लिम पर्सन लॉ बोर्ड को यह वार्ता के लिए अपने पास आने का बुलावा भेज रहे हैं। मुस्लि पर्सन लॉ बोर्ड या इस्लामी जमाअतों से इनकी वार्ता के मुद्दे पर तो अलग से बात करेंगे फ़िलहाल हम भारत की आम जनता के सामने सोचने के लिए यह प्रश्न रखना चाहते हैं कि इस्लाम का भारतीय करण करने में भारत वासियों का कल्याण है या भारत का इस्लामीकरण करने में भारत का हित निहित है।
भारतीयकरण का मतलब
हिन्दुत्वादी यह मानते और मनवाना चाहते हैं कि हिन्दुत्व ही भारतीयता है और भारतीयता ही हिन्दुत्व है। इस नज़रिए की रोशनी में यह देखा जाना चाहिए कि तथाकथित भारतीयता या तथाकथित हिन्दुत्व के पास इंसानियत को तरक़्क़ी देने या रास्ता दिखाने के लिए है क्या ?
हिन्दुत्व या तथाकथित भारतीयता साफ़ तौर से मानवता को विभाजित करने, मातृभूमि के आधार पर दूसरे इंसानों से ख़ुद को बड़ा समझने और दूसरे इंसानों को अपने आगे झुकाने की भावना का नाम है। ऐसी कोई भी भावना इंसानियत के लिए एक गाली और विश्व समुदाय के सामने ग़ुण्डा बन कर खड़े होने की भावना है। आज का अमरीका या पहले के जातिवादी साम्राजी राज्य इस ग़ुण्डा गर्दी का नमूना हैं। भारत का हिन्दुत्व भी अपने मन में ऐसी ही ग़ुण्डा गर्दी की भावनाए पाले हुए है। इसलिए भारतीयकरण के नाम पर इस्लाम का हिन्दूकरण करने की सोच अस्ल में इस्लाम के विश्वव्यापी भाई चारे, समानता और इंसाफ़ के नज़रिए को कुचल देने की सोच है जो न तो भारत की आम जनता को संतुष्ट करने वाली है न विश्वभर के इंसानों के सम्मान व आज़ादी के पक्ष में है।
हिन्दुत्वादी भारतीय संस्कृति का दूसरा अभिन्न अंग है इंसानों में भेदभाव, ऊंच नीच और छुआ छूत का चलन। इस लिए भारतीयकरण का सीधा मतलब है ऊंच नीच की ढांचा गत व्यवस्था को स्थापित करना जिसे ये इंसानियत के दुशमन वर्णाश्रम कहते हैं। हज़ारों साल से कमज़ोरों और सीधे सादे लोगों को शूद्र और दलित बना कर रखने वाली हिन्दुत्वादी भारतीय संस्कृति जब इस्लाम जैसे धर्म का भारतीयकरण करने की बात करती है तो वास्तव में इस दुस्साहस को व्यक्त करती है कि इस्लाम ने तमाम इंसानों को एक ईश्वर की मख़लूक़ और एक मातापिता की संतान होने की शिक्षा देकर दुनिया के तमाम इंसानों के बीच जन्म के आधार पर भेदभाव और घृणा के बजाए सम्मान और अधिकारों में बराबर खड़ा करने का जो कारनामा अंजाम दिया है यह उसे पलटेंगे और इंसानों में ऊंच नीच और अधिकारों में नाबराबरी की अपनी पुरानी संस्कृति को पूरी दुनिया पर ख़ास, तौर से मुसलमानों पर, फिर से थोपेंगे। भारत के मूल निवासी जो इस अपमानजनक और अत्याचारी संस्कृति का दंश सदियों से झेलते आ रहे हैं और इसका बोझ़ अपने ऊपर से उतार फेंकना चाहते हैं क्या ये उनके हित में होगा कि वह इस्लाम भारत की धरती पर हिन्दुत्व का ग़ुलाम बन जाए जिस इस्लाम में भारत के मूल निवासियों और अन्य वर्गों की बहुत बड़ी संख्या ने शरण लेकर आत्म सम्मान को पाया है, वह इस्लाम जो उन लोगों के लिए भी अप्रत्यक्ष रूप से एक सहारा और छाया है जिन्होंने इसका दामन नहीं थामा लेकिन इसके रहते वे हिन्दुत्व की मानवता विरोधी संस्कृति से लड़ने का साहस पाते रहे हैं।
हिन्दुत्वादी भारतीय संस्कृति का जब भी ज़िक्र आएगा तो बे शर्मी और नग्नता से भरी उन परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं की चर्चा होगी जिसमें भगवानों और देवताओं व देवियों के बीच भी अनैतिक यौन क्रियाओं का बयान बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ किया जाता है जिसके नतीजे में हिन्दुत्व की पूरी धार्मिक संस्कृति अनैतिक सम्बंधों, यौन उत्पीड़ीन और रेप की संस्कृति बन कर सामने आती है और धर्म व अध्यात्म के नाम पर बने आश्रमों में धर्म गुरू बन कर बैठने वाले अपनी शिष्याओं और श्रद्धालु महिलाओं के साथ रेप करके अपनी वासना और रेप कराने वालियों की श्रद्धा भावना को संतुष्ट करते हैं। अजनता और एलौरा की गुफाएं प्राचीन भारतीय संस्कृति के गौरव का सचित्र वर्णन करती हैं।
हालांकि इंसान की शराफ़त और नैतिकता इससे घिन्न खाती है और इसे ठुकराती है। एक द्रोपदी के साथ पांच कौरवों का एक साथ पति बनकर रहना और नियोग जैसे संस्कारों से महिलाओं को गर्भवती करना जिस संस्कृति की गौरवशाली परम्परा रही हो, जिसमें लिंग को पूजना और लिंगाकारी पत्थर से लिपटना महिलाओं के लिए आत्मा की संतुष्टि और देवता की प्रसन्नता प्राप्ति की क्रिया माना जाता हो, जानवरों का पेशाब पीना जिस संस्कृति में शुभ हो वह संस्कृति क्या विश्व का कोई नैतिक मार्ग दर्शन करने की क्षमता अपने अंदर रखती है ? ऐसी संस्कृति के ध्वजावाहक जब इस्लाम जैसे धर्म और संस्कृति का भारतीयकरण करने की बात करते हैं तो उनकी मंशा इसके सिवा और क्या हो सकती है कि दुनिया को नैतिकता, पवित्रता और शालीनता का रास्ता दिखाने वाली पाकीज़ा संस्कृति को अपनी गन्दगी से गन्दा कर दें।
हिन्दुत्वादी भारतीय संस्कृति की समीक्षा अगर पूरे विस्तार से की जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि यह जिहालत और पिछड़े पन की एक अति रुढ़िवादी संस्कृति है जो इंसान को इंसान बनाने की कोई प्रेरणा और बल अपने अंदर नहीं रखती बल्कि इंसानियत को उसके ऊंचे मुक़ाम से खींच कर पाताल में गिराने का ही काम कर सकती है।
इस्लामीकरण का मतलब
लेकिन इसके विपरीत अगर भारत के इस्लामीकरण की बात की जाए तो इसका मतलब यह होगा कि जानवरों, जानवरों के मल-मूत्र, लिंग और योनियों की पूजा में लगे भटके हुए इंसानों को उनके मालिक और रचियता अल्लाह से प्रत्यक्ष सम्बंध स्थापित करने, अकेले उसी की उपासना व आराधना करने और स्वंय को उसके आगे समर्पित करके दुनिया की हर शक्ति की ग़ुलामी से आज़ाद होने का रास्ता दिखाया जाए।
अल्लाह ने अपने अंतिम पैग़म्बर के ज़रिए सारे इंसानों को यह जो पैग़ाम दिया है कि कोई इंसान जन्म या जाति के आधार पर ऊंचा या नीचा नहीं होता, सारे इंसान एक माता पिता की संतान हैं और सम्मान व श्रेष्ठता में एक दूसरे के बिल्कु बराबर हैं, इस पैग़ाम को भारत की जनता के मन मस्तिष्क में बैठा कर उन क्रूर और मक्कार इंसानों की अंध भक्ति से निकाला जाए जो उनके ऊपर ख़ुद भगवान बन कर बैठ गए हैं। जो उनका आर्थिक, राजनीतिक, शरीरिक और अध्यात्मिक शोषण करते आ रहे हैं।
फिर इस्लाम ने मानव अधिकारों का, नैतिक मर्यादाओं का, पवित्र जीवन शैली का, पौष्टिक, स्वादिस्ष्ट और स्वच्छ खानपान का जो उच्चतम आदर्श सारी दुनिया को दिया है उस के अऩुसार भारत के नवनिर्माण का और भारतवासियों के चरित्र निर्माण का काम किया जाए।
इस्लाम ने न केवल आस्था और अध्यात्म के पहलू से इंसान के मन मस्तिष्क को सही राह दिखाई है बल्कि एक नियमबद्ध जीवन शैली के रूप में एक शरीअत (क़ानून व्यवस्था) भी दी है जिसमें महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों, अऩाथों, विधवाओं, बे सहारा मर्दों, ग़रीबों, कमज़ोरों, अपंगों जैसे हर वर्ग के लिए विशेष अधिकार स्पष्ट रूप से निर्धारित किए गए हैं। इस शरीअत में जन्म के आधार पर या सामाजिक रुत्बे के आधार पर किसी के लिए कोई विशेष अधिकार नहीं है, न्याय के तराज़ू में किसी के लिए कोई झुकाव नहीं है, सज़ा या इनाम का पैमाना अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग नहीं है। हर वह बुरा काम जो इंसानों के नज़दीक स्वभाविक रूप से एक जुर्म और अपराध है या इंसान के चरित्र और स्वास्थ के लिए घातक है उसे इस शरीअत में अपराध घोषित किया गया है और हर अपराध की सज़ा का एक पैमाना रखा गया है। इसलिए भारत और भारत वासियों के इस्लामीकरण का मतलब उन्हें इस आदर्श व्यवस्था को अपनाने के लिए प्रेरित करना है।
इस्लाम चूंकि आस्था की आज़ादी को एक सिद्धांत के रूप में मानता है इसलिए किसी भी समाज के इस्लामीकरण का मतलब यह नहीं है कि लोगों को उनकी अपनी पसन्द की आस्था के साथ जीने की आज़ादी से वंचित किया जाएगा या हर एक को इस्लाम की आस्था मानने के लिए मजबूर किया जाएगा, हर व्यक्ति और वर्ग के लिए धार्मिक अधिकारों की स्वतंत्रता को इस्लामी शरीअत में सुरक्षित किया गया है। इसलिए भारतवासियों की बहु संख्या अगर इस्लाम को अपना कर भारतीय समाज का इस्लामीकरण करेगी तो भी अन्य तमाम वर्गों की धार्मिक स्वतंत्रा वैसी ही बनी रहेगी जैसी कि भारत के संविधान के अनुसार सब को मिली हुई है। हां इसमें व्यवहारिक रूप से इतना बदलाव ज़रूर आएगा कि संविधान की अनदेखी करके असंवैधानिक रूप से जनता के विभिन्न वर्गों को दबाने कुचलने और मसलने की वह आज़ादी शासक वर्ग को नहीं होगी जो आज के हिन्दुत्वादी भारत में उदारवादी और धर्म निर्पेक्ष संविधान को होते हुए भी बाहु बलि वर्गों को मिली हुई है।
इस इस्लाम ने बीती सदियों में भारतवासियों की बड़ी संख्या को मुक्ति और कल्याण की राह दिखाई है लेकिन बदलाव की यह प्रक्रिया कई तरह के राजनीतिक और ऐतिहासिक कारणों की वजह से मन्द पड़ी हुई है, इस प्रक्रिया को फिर से गति देने की ज़रूरत है। भारत की आम जनता को इस्लाम की पुकार पर ध्यान देना चाहिए। इस्लाम सारे विश्व को एक डोर में बांधने वाली ईशवरीय व्यवस्था है। यह इंसान की आस्था और चरित्र निर्माण से लेकर भौतिक और व्यवहारिक जीवन के हर पहलू को वह रास्ता दिखाता है जिसमें इंसान के लिए सलामती ही सलामती है और इसी लिए इसे इस्लाम कहा जाता है। यही इस्लाम है जो मरने के बाद मिलने वाले जीवन में भी कामयाबी, कल्याण और मुक्ति की ज़मानत देता है।